एक राजा के चर्चे
बहुत समय पहले की बात है। पूर्वांचल के घने जंगलों और सुंदर पहाड़ों के बीच बसा एक राज्य था – “सत्यगढ़।” इस राज्य के राजा थे – वीरसेन। राजा वीरसेन न केवल बहादुर थे, बल्कि न्यायप्रिय, दयालु और बुद्धिमान भी थे। उनकी प्रजा उन्हें देवता के समान मानती थी।
राजा वीरसेन के चर्चे दूर-दूर के राज्यों तक फैल चुके थे। कोई उन्हें ‘धीर-वीर’ कहता, कोई ‘जनता का मसीहा’, तो कोई ‘राजा धर्मराज’ कहकर बुलाता।
राजा की खासियत
वीरसेन भले ही महलों में रहते थे, लेकिन उनका दिल गांव और जंगलों में बसता था। वे हर महीने बिना किसी को बताए साधारण वेशभूषा में गांवों का भ्रमण करते, लोगों की समस्याएं सुनते और बिना दिखावे के समाधान करते।
एक बार वे गांव की यात्रा पर निकले तो देखा – एक किसान पेड़ के नीचे रो रहा था। राजा ने साधारण व्यक्ति बनकर पूछा, "क्या हुआ भैया?"
किसान बोला, "महाराज के सिपाही जबरन मेरी ज़मीन छीन रहे हैं।"
राजा ने उसी रात उस मामले की जांच की और अगले दिन उस किसान की ज़मीन वापस करवा दी। जब किसान को पता चला कि उसकी मदद करने वाला साधारण व्यक्ति ही स्वयं राजा था, तो वह भावुक होकर राजा के पैरों में गिर पड़ा। तभी से राजा के "गुप्त दौरों" की चर्चा फैलने लगी।
दरबार में न्याय
राजा वीरसेन के दरबार में हर व्यक्ति को न्याय मिलता। चाहे वह गरीब हो या अमीर। एक दिन एक अमीर व्यापारी और एक गरीब गड़ेरिया राजा के दरबार में पहुंचे। व्यापारी ने कहा कि गड़ेरिये की बकरी ने उसके बाग के फूल खा लिए।
गड़ेरिया डरते हुए बोला, “महाराज, बकरी तो बंधी थी। किसी ने खोल दी और उसने फूल खा लिए। जानबूझकर नहीं हुआ।”
राजा ने दोनों पक्षों की बात सुनी। फिर आदेश दिया कि व्यापारी को कुछ मुआवजा दिया जाए, लेकिन साथ ही उसे भी समझाया कि जीवन में करुणा जरूरी है। “फूल फिर आ जाएंगे,” राजा बोले, “पर एक निर्दोष की आत्मा टूटे, यह राजधर्म नहीं।”
ऐसा था वीरसेन का न्याय – संतुलित, समझदारी से भरा और करुणामयी।
शत्रु पर विजय, पर अहंकार नहीं
सत्यगढ़ पर कई बार दूसरे राज्यों ने हमला किया, लेकिन वीरसेन हर बार अपनी रणनीति और साहस से जीतते गए। एक बार एक विशाल सेना वाले राजा रणधीर ने सत्यगढ़ पर चढ़ाई कर दी।
रणधीर को लगा कि छोटा राज्य है, एक झटके में जीत जाएगा। लेकिन वीरसेन ने छोटी-छोटी टुकड़ियों में लड़ाई कर, जंगल का उपयोग करते हुए रणधीर की सेना को थका दिया। अंत में, जब रणधीर की हार हुई, तो सभी ने सोचा कि राजा वीरसेन उसे कारागार में डाल देंगे।
लेकिन राजा ने उसे भोजन, चिकित्सा और सम्मान देकर कहा – "जो युद्ध में गिरता है, वह दुश्मन होता है। लेकिन जो हारकर भी विनम्र होता है, वह मित्र बन सकता है।"
रणधीर राजा की उदारता से इतना प्रभावित हुआ कि भविष्य में वह सत्यगढ़ का मित्र बन गया। इस घटना के बाद राजा वीरसेन की कीर्ति दूर देशों तक फैल गई।
विनम्रता ही असली शक्ति
राजा वीरसेन कभी घमंडी नहीं हुए। वह कहते – "राजगद्दी सेवा का माध्यम है, दिखावे का नहीं।" उनका मंत्र था – ‘प्रजा सुख में मेरा सुख है।’
एक बार जब महल के रसोईघर में आग लग गई और कई सेवक घायल हो गए, तो राजा स्वयं दौड़ पड़े। वे घायलों को पानी पिलाते, पट्टियां बांधते दिखे। यह दृश्य देखकर महल के लोग रो पड़े। उन्हें लगा कि ऐसा राजा सौभाग्य से ही मिलता है।
आखिरी यात्रा, अमर गाथा
कई वर्षों तक राज्य में सुख, शांति और समृद्धि बनी रही। पर समय कभी किसी का नहीं होता। राजा वीरसेन एक दिन गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। पूरा राज्य दुख में डूब गया। राजा ने अपने अंतिम दिनों में कहा –
“मैं चला जाऊंगा, लेकिन अगर तुम सच्चाई, मेहनत और प्रेम का रास्ता नहीं छोड़ोगे, तो मेरा नाम हमेशा जीवित रहेगा।”
राजा की मृत्यु के बाद उनकी याद में एक विशाल स्तंभ बनवाया गया – “वीरसेन स्तंभ”, जो आज भी सत्यगढ़ में है। वहां आज भी लोग आकर कहते हैं – “ऐसा राजा फिर नहीं आया।”
सीख:
"एक राजा के चर्चे" केवल उसके युद्धों से नहीं, बल्कि उसके व्यवहार, न्याय, और सेवा भावना से होते हैं। वीरसेन ने दिखा दिया कि असली राजा वही होता है, जो गद्दी से पहले दिलों पर राज करता है।
निष्कर्ष:
राजा वीरसेन की कहानी हर उम्र के लिए एक प्रेरणा है। एक सच्चा शासक वही होता है जो प्रजा को अपना परिवार समझे, और अपने कर्तव्य को भगवान की सेवा माने। आज भी अगर कहीं ऐसा राजा हो, तो राज्य स्वर्ग बन जाए।
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